Saturday 13 August 2016

स्वतंत्र भारत की वीर गाथा

वतन हमारा रहे सादगाम और आज़ाद
हमारा क्या हम रहें ना रहें
संदीप कुमार मिश्र: मित्रों 15 अगस्त...यानि स्वतंत्रता दिवस..आजादी मनाने का पर्व...एक ऐसी आजादी जिसे पाने के लिए भारत मां ने अनगिनत वीरो सपूतों की कुर्बानी दी..देश हमारा आजाद हुआ,भारत मां गुलामी की जंजीरों से मुक्त आजादी की अंगड़ाई ली...आईए आजादी के संपूर्ण घटनाक्रम को याद कर देश के वीर सपूतों को दें हम सच्ची श्रद्धांजलि...

1857 से 1947 तक...

वक्त का गुजरना बदस्तूर जारी रहा और हम आजाद हो गए....हजारों वर्ष पहले वेदो और उपनिषदों की इस पावन भूमी पर ऋषि मुनि मंत्रो का जाप करते थे...सोलहवी शताब्दी के आते आते... हिन्दोस्तान अपने गौरव शिखर  पर पहुंच चुका था...इसके अतुल धन की चर्चा दूर दूर के देशों में होने लगी थी....पूरे विश्व में भारत सोने की चिड़िया कहलाने लगा...।

याचक बनकर आए अंग्रेज शासक बन बैठे...जिसका नतीजा यह निकला की हम अपने ही घर में गुलाम बन गएसोने की चिड़िया के पंख नोचते रहे फिरंगी और 200 सालों तक हमें गुलामी की जंजीरों में जकड़ कर रखा।इस जकड़ से और भारत माता को गुलामी की जंजीरों से छुड़ाने के लिए लोग तड़पने लगे,तिलनिलाने लगे,और फिर एक ऐसा संग्राम छिड़ा जिसका असर नजर आने लगा,और फिरंगियों को अपने वतन लौटना पड़ा।
ये कहानी है हिन्दुस्तान की आजादी की,मुगल आक्रमणकारियों और अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों को तोड़ता हुआ संघर्षशील भारत की-

दरअसल एक समय था जब पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्सुक रहा करते थे।पहले मध्य यूरोप से लोग भारत आए और भारत में ही बस गये और फिर मुगलों ने तो भारत में ही स्थायी रुप से अपना घर बना लिया। उसके बाद मंगोलियायी शासक चंगेज खान ने भारत पर कई बार आक्रमण किया और लूट-पाट की। अलेक्जेंडर महान भी भारत पर विजय करने आया किन्तु पोरस के साथ महासंग्राम में पराजित होकर वापस चला गया।ज्ञान की तालाश में चीनी यात्री ह्वेनसांग भी भारत आया और नालंदा तथा तक्क्षशिला विश्वविद्यालय में भ्रमण किया जो आज विश्व के प्राचीन विश्वविद्यालयों में से एक हैं।

औऱ अंत में ब्रिटिश आए जिन्होने लगभग दो सौ सालों तक राज किया।1757 में प्लासी युद्ध के बाद फिरंगियों ने भारत पर राजनैतिक अधिकार प्राप्त कर लिया और उनका साम्राज्य लार्ड डलहौजी के कार्यकाल में यहां स्थापित हो गया। जो 1948 में गवर्नर जनरल भी बना।अंग्रेजों ने पंजाब, पेशावर औऱ भारत के उत्तर पश्चिम के पठान जनजातियों को संयुक्त किया।1856 तक ब्रिटिश अधिकार औऱ अपनी सत्ता को मजबूती से स्थापित किया और स्थानिय शासकों, मजदूरों, बुद्धिजिवियों और सामान्य नागरिकों के अधिकारों को दबा दिया। लोग बेरोजगार हो गये,विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी,औऱ इस ज्वाला ने बगावत के रुप में 1857 के विद्रोह का आकार ले लिया। जिसने अंग्रेजों के रोंगटे खड़े कर दिये।
11 मई 1857-चैन से सोई हुई दिल्ली की नींद अभी खुली भी नहीं थी कि यमुना पार कर मेरठ से आया सैनिकों का दस्ता शहर में दाखिल हो गया।मेरठ में इन सैनिकों ने अपने अंग्रेज अफसर का हुक्म मानने से इंकार कर दिया था,इतना ही नहीं उसे मौत के घाट भी उतार दिया था।बागी हुए सैनिकों के इस हलचल ने दिल्ली को झकझोर दिया और दिल्लीवासी भी कदम से कदम मिलाकर उनके साथ हो लिए।और आखिरी मुगल बादशाह बहादूर शाह जफर के पास अपनी फरियाद लेकर लाल किले जा पहुंचे। यह वो वक्त था जब बादशाह अपने जीवन के अंतिम पल गुजार रहे थे।
कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा, वैसे ही इन बागी सिपाहियों को एक सेनापति चाहिए था, बेशक नाम के लिए ही सही।शहंशाह--हिंदुस्तान ने देशवासियों के आवाज को और बुलंद किया और फिर दिल्ली पर कब्जे की कार्यवाई शुरु हुई।
जिसका परिणाम हुआ कि कम्पनी के राजनैतिक एजेंट सायमण्ड, मेजर समेत सैकड़ों अंग्रेज मारे गये।सरकारी दफ्तरों पर या तो बागी सैनिक काबिज हो गये या तो उन्हें तबाह कर आग के हवाले कर दिया।निश्चितरुप से जवानों और जनता का जोश देखकर ही बहादूर शाह जफर ने खुद को सम्राट घोषित किया और संग्राम और आजादी के इस महासंग्राम में अपने बेटों को भेज दिया।यह तो एक शुरुआत थी।इसके बाद तो देश के हर छोटे-बड़े हिस्सों में गुलामी से आजाद होने का विद्रोह फूट पड़ा।1857 का विद्रोह भले ही सैन्य विद्रोह रहा हो लेकिन एक बड़ी आग अवध ने अपने सीने में दबा रखी थी।इस विद्रोह में जहां नवाबों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी वहीं किसानों ने भी वर्दीयां पहन ली थी। यह वो वक्त था जब अवध का हर घर इस संग्राम में शामिल हो गया था।
अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह को कम्पनी कमांडर के हुक्म से तख्त छोड़कर कलकत्ता जाना पड़ा। जिसका नतीजा यह निकला कि अंग्रेजों से जंग का माहौल बन गया। अंग्रेजों के सामने मौत मंडराने लगी।ऐसे में वाजिद अली शाह की बेगम ने अपने 14 साल के बेटे को तख्तो-ताज सौंपा और खुद राजमाता बनीं और जंग में कूद पड़ीं। बेगम के द्वार बगावत का ऐलान सुनकर लखनऊ के लोगों को भी कुछ कर गुजरने का मौका दिया,और लखनऊ के कुछ ही दुरी पर कानपुर में आखिरी मराठा पेशवा बाजीराव के बेटे नाना साहब पेशवा ने कमाल संभाल ली।
उधर झांसी से रानी लक्ष्मीबाई ने सिपाहियों की कमान संभाली।लार्ड डलहौजी ने उनके गोद लिए बेटे को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया औऱ राज्य रियासत को भी हड़प लिया।अपने स्वाभिमान और अपनी झांसी की रक्षा के लिए मार्च 1858 में एक भीषण संग्राम हुआ और अंग्रेजों के लिए लक्ष्मीबाई पर काबू पाना वाकई मुश्किल साबित हुआ।आग तो पूरे देश में लगी हुई थी।बिहार के जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह ने भी अपनी 70 साल के उम्र बगावत का बिगुल फूंका और बिना किसी योजना और रणनीति के भी बाबू कुंवर सिंह आखिरी सांस तक अपने सैनिकों के साथ लड़ते रहे।
यकीनन सैनिकों में फिरंगियों के खिलाफ गुस्सा काफी पहले से जड़ जमा चुका था।जिसका नतीजा था कि कई घटनाएं पहले ही हो चुकी थी।जैसे कि सबसे पहले 1824 में बैरकपुर की 47वीं बटालियन ने बर्मा जाने से मना कर दिया।जिन सिपाहियों ने मना किया उन्हे बागी घोषित कर फांसी पर लटका दिया गया।फिर बुरहानपुर की 19वीं नेटिव इनफेंट्री इनफिल्ड राइफल के इस्तमाल से भंग कर दी गयी।मंगल पांडे ने अपने सर्जेंट मेजर पर गोली चला दी और फांसी चढ़ गये। उधर सातवीं अवध रेजीमेंट ने भी अपने अफसरों का हुक्म मानने से इंकार कर दिया और उसे भी भंग कर दिया गया।दरअसल जब अंग्रेजों की सेना में भारतीय सैनिकों को यह लगने लगा था कि एक साजिश के तहत यह फिरंगी उनका ईमान और मजहब बदलवाना चाहते थे,लिहाजा अंग्रेज वैसा ही काम करने कहते जिससे उनका धर्म भ्रष्ट हो जाए।ऐसे में संग्राम तो होना ही था।

1857 की क्रांति ने आज़ादी का ऐसा बिगुल बजाया कि सैनिकों के साथ- साथ देश का हर तबका, हर वर्ग के लोग शामिल हुए, साधु संत और फकीरों ने भी आज़ादी के इस महासंग्राम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।वहीं बाल गंगाधर तिलक ने गणपति महोत्सव में शामिल हुए आजादी के दीवानों में एक ऐसी अलख जगाने का काम किया, जिससे जंजीरों में जकड़ी भारत मां की गुलामी की बेड़ियां कट सके।

आज़ादी के इस महासंग्राम में कही कहीं राजनीतिक कदम अहम हो गया था।हर तरफ आन्दोलन हो रहे थे, जिसमें पहला आन्दोलन बंगाल के बंटवारे को लेकर हुआ।
फिरंगियों को लेकर देश में अस्थिरता की लहर चल पड़ी। लोगों के बीच पहले से ही असंतोष था इसे और बढ़ाते हुए 1919 में रोलट एक्ट अधिनियम पारित किया गया।जिसके विरोध में बड़े- बड़े प्रदर्शन और धरने दिए जाने लगे।इस विरोध प्रदर्शन का परिणाम इतना घृणित होगा, ऐसी कल्पना किसी ने की थी। दरअसल अंग्रेजों ने वादा किया था कि वे युद्ध खत्म होने के बाद भारतीयों को कुछ विशेष सुविधाएं देंगे। लेकिन 1919 में उन्होंने रौलट एक्ट का तोहफा दिया। इसके तहत किसी को भी शक के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था। ना अपील, ना कोई दलील और ना ही वकील। 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में हो रही सभा पर जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं। करीब एक हजार लोग मारे गए। देश में आग लग गई। 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन की घोषणा कर दी गई। सरकारी स्कूलों का बहिष्कार किया गया, उपाधियां लौटाई गईं, जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई।

5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरीचौरा में भीड़ ने पुलिस चौकी में आग लगा दी। 21 सिपाही और थानेदार की मौत हो गई।
एक तरफ गांधी जी का अहिंसक आन्दोलन और दूसरी तरफ क्रांतिकारियों की विद्रोही गतिविधियों में अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था।3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन बंबई पहुंचा। स्वागत काले झंडों और हड़ताल से हुआ। पूरा देश साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे से गूंज उठा। लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में जुलूस निकला। जुलूस रोकने पर आमादा पुलिस अफसर सांडर्स ने लालाजी के सिर पर लाठियां चलाईं। उन्हें गंभीर चोट आईं और एक महीने के अंदर ही उनका देहांत हो गया। लेकिन मरने से पहले लालाजी ने एक भविष्यवाणी की। उन्होंने कहा-मेरे शरीर पर लगी एक-एक चोट ब्रिटिश राज्य के ताबूत की कील साबित होगी। लाला जी की मौत से भावनाओं का तूफान पैदा हो गया। भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों ने सांडर्स की हत्या कर दी। बेचैनी बढ़ रही थी। इस बीच दिसंबर 1929 में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ और 31 दिसंबर की मध्यरात्रि को रावी के तट पर पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया गया। ये एक निर्णायक मोड़ था। 26 जनवरी 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। ये वो दौर था जिसने स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक नई इबादत लिख दी।
अंग्रेजों का एक से बढ़कर एक अत्याचार और उससे कही बड़ा हमारा आन्दोलन।अंग्रेजों ने नमक पर भी टैक्स लगाना शुरू कर किया। जिसके विरोध में सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया।1942के आते आते आन्दोलनों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया और एक दिन वो स्वर्णिम सुबह ही गई। जब देश ने आजाद हवा में सांस ली।नई रौशनी और नए रंग आखों में झिलमिलाने लगे।अब अंग्रेजों को लगा कि भारत को सत्ता सौंपना ही बेहतर होगा।लेकिन अब भी कही कुछ कमी थी,कई सौदे मसौदे हुए, और आखिरी गवर्नर जनरल माउन्टबेटन  को भारत आना पड़ा।15 अगस्त 1947 की सुबह एक बार फिर लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा खुले आसमान में सिर उठाकर लहराने लगा।

कहते हैं जब जज्बा आज़ादी जुनून की शक्त अख्तियार कर लेता है तो दुनिया की कोई भी ताकत उसका रास्ता नहीं रोक सकती।आज़ादी तो एक नेमत है,तभी तो हमारे देश के महानायकों ने आज़ादी की खातिर हर तरह की कुर्बानियां दी, और हमें आज़ादी मिली।एक आज़ाद हिन्दुस्तान का सपना पूरा हुआ। 
                          जय हिन्द जय भारत

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