Saturday 5 March 2016

संसद चलने दें माननिय...बहुत जरुरी है

संदीप कुमार मिश्र: बार बार बात होती है....कि संसद की गरिमा बनाये रखना सबकी जिम्मेदारी है...लेकिन सबकी...किसकी...जनता की...या नेता जी की...ना जाने क्यूं ऐसा लगता  कि संसद लोकतंत्र का मंदिर ना होकर राजनीति का अखाड़ा बन गया है...जो हमारे जनप्रतिनिधों को संसद में जाते ही पहलवान बना देता है...जो कभी अपने विरोधी को धोबी पछाड़ मारता है तो कभी लंगड़ी दांव...हां अगर कुछ नहीं कर रहा या करने दे रहा है तो सिर्फ संसद नहीं चलने दे रहा....इसके लिए दोनो ही दोषी है....विपक्ष और सरकार दोनों।अंतर सिर्फ इतना है कि कोई कुछ कम है तो कोई ज्यादा।
दरअसल पिछले दिनो की ही बात करें तो संसद में राहुल बाबा ने पीएम मोदी पर करारे और तीखे हमले किए। जवाब में अगले दिन पीएम ने कांग्रेस के ही वार से उसे धरासायी करने में कोई कोरकसर नही छोड़ी।पीएम ने ये भी सवाल कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष पर दागा कि आखिर संसद क्यों नहीं चलने दे रहे हैं लोग।आपको याद होगा कि इससे पहले भी असम की एक रैली में पीएम मोदी ने यह मुद्दा उठाया था, और उससे पहले दिल्ली से मेरठ के लिए चौदह लेन के एक्सप्रेस-वे की आधारशिला रखने के बाद नोएडा में एक जनसभा को संबोधित करते भी कांग्रेस की कार्यशैली पर सवाल उठाए थे।
अब जब एक बार फिर संसद मे सिर्फ हो-हंगाम हो रहा है तो पीएम नरेंद्र मोदी के संसद संबोधन के बाद कांग्रेस पर सवाल उठने लाजमी है कि आखिर विपक्ष चाहता क्या है,क्योंकि पिछले दो संसदीय सत्रों का काफी समय बेकार चले जाने से ढ़ेरों महत्वपुर्ण बिल और जरुरी कार्य नहीं हो सके थे।गौरतलब है कि प्रधानमंत्री के मन ये पीड़ा भी निश्चित रुप से रही होगी।
आपको अतित में लेकर चलता हुं,यानि पिछले साल जब संसद का मानसून सत्र ललित मोदी प्रकरण और व्यापमं घोटाले की भेंट चढ़ गया था।जिसकी वजह से कई सारे विधेयकों पर चर्चा नहीं हो पाई थी।खैर उम्मीद बनी कि शीतकालीन सत्र में सब ठीक हो जाएगा लेकिन उसका भी अंत बेहद दुखदायी रहा।  हंगामें और आरोप प्रत्यारोप के जिन्न ने शीतकालीन सत्र को भी कहीं का नहीं छोड़ा।इस इस सत्र को ही ले लिजिए...जिसका शुभारंभ ही हंगामे से ही हुआ और समापन...?कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो ढ़ेरों अतिमहत्वपुर्ण बिल अधर में लटके हैं। जिसे पास होने की उम्मीद ही कर सकते हैं...विश्वास नहीं...!
माना कि संसद में होने वाले काम को हम किसी अन्य महकमों में होने वाले काम से जोड़कर नहीं देख सकते।लेकिन इसका मतलब ये भी तो नहीं कि हमारे माननिय जनता का समय और पैसा दोनों बर्बाद करें।ये सही है कि सरकार को सचेत रखने के लिए वर्मान दौर से गुजर रहे देश की परिस्थितियों से अवगत करवाना विपक्ष की जिम्मेदारी है..लेकिन अफसोस इसका मतलब हंगामा नहीं होता,सरकार की जिम्मेदारी है,जवाबदेही है,कि सभी मुद्दो को सलैयत से सुलझाए और समझाए...लेकिन पिछले दिनो जिस प्रकार से कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष कार्य कर रहा है,वो देशहित तमें तो नही ही कहा जा सकता।।
जिस जीएसटी पर इतना को कांग्रेस पास नहीं होने दे रही है।दरअसल ये उसी के कार्यकाल की योजना थी...जो बेहद जरुरी है।जिन राज्यों को जीएसटी पर एतराज था,उनमें गुजरात पहले था। लेकिन राज्यों की आपत्तियों को दूर करने के लिए इस बिल में कई संशोधन किए गए। अन्य मतभेद भी दूर किए जा सकते हैं। कांग्रेस ने जीएसटी की अधिकतम सीमा तय करने तथा एक विवाद निपटारा तंत्र बनाए जाने जैसे कई अहम सुझाव भी दिए हैं। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी ऐसी राय दे चुके हैं। लिहाजा, इन्हें समाहित करते हुए जीएसटी पर आम राय बनाने का रास्ता साफ हो सकता है।लेकिन सवाल ये है कि इतना विलंब क्यों...?
मोदी सरकार लोकसभा में पूर्ण बहुमत से हो लेकिन राज्यसभा में उसकी हालत पतली है। लोकसभा में तो कांग्रेस को इतनी भी सीटें नहीं मिल पार्इं कि वह प्रतिपक्ष के नेता-पद की दावेदारी कर सके। इसलिए कई विधेयकों को लेकर यही सवाल बना रहता है कि क्या राज्यसभा की बाधा पार हो पाएगी ? राजीव गांधी की सरकार के समय भी, जब सत्तापक्ष के पास रिकार्ड बहुमत था, राज्यसभा ही विपक्ष की ताकत होती थी। पर ऐसी स्थिति का इस्तेमाल सरकार को निरंकुश होने से रोकने के लिए होना चाहिए, न कि विधायी कामों को अटकाते रहने के लिए। संसद चले, यह विपक्ष की भी जिम्मेवारी है।
अंतत: उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार जरुरी बिलों को संसद में पास करवा पाएगी और विपक्ष सरकार का साथ देगा...अन्यथा ये विड़ंबना ही कही जाएगी कि संसद...जिसे हम लोकतंत्र का मंदिर कहते है वो किसी सियासी अखाड़े से कम नहीं रह गया है...जहां लड़ने के लिए ही हम जनप्रतिनिधि का चुनाव कर हर पांच साल बाद भेज देते हैं....।

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