Saturday 13 February 2016

सिंहस्थ कुंभ महापर्व महात्म्य

संदीप कुमार मिश्र:  महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन में,मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदी के पावन तट पर,सिंहस्थ कुंभ महापर्व का महाउत्सव,आध्यात्म और भक्ति का अद्भूत संगम। सनातन धर्म प्रेमीयों का इस महाउत्सव में देखने को मिलेगा भावभरा समागम।

 दरअसल दोस्तों हमारी वैदिक जीवन पद्धति कुंभ जैसे महाआयोजनों का आदर्श रही है। ये बात सर्वविदित है कि हमारे देश भारत को सांस्कृतिक एकसूत्रता में बांधने के लिए ही देश के चारों कोनों में पीठों की स्थापना करने वाले आदिशंकराचार्य भी वैदिक जीवन के ही प्रचारक थे। इसलिए हम सब के लिए कुंभ जैसे आयोजनों के बारें में जानना काफी दिलचस्प है कि हमारे वेदों में कुंभ के संबंध में क्या कहा गया है। वैदिक स्थापनाओं से यह तो स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन तब भी होते थे और बाद में आदिशंकराचार्य ने फिर से इस परम्परा को आगे बढ़ाया।
साथियों हमारी वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की जप,तप,साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया गया है,तो वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों और महापर्वों के प्रति भावभरा आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी मुख्यतौर पर रहा है।इस नजरिये और महात्म्य की दृष्टी सें कहें तो विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ महाकुंभ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है। जहां आकर समस्त मानवता को आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण की अनुभूति प्राप्त होती है।
महाकाल की नगरी उज्जैन में सिंहस्थ महाकुंभ महापर्व पर देश और विदेश के भी साधु-महात्माओं, सिद्ध-साधकों और संतों का समागम देखने को मिलता है।जिनके सानिध्य में आकर श्रद्दालू अपने लौकिक जीवन की सभी समस्याओं का समाधान तलाशते हैं। इसके साथ ही अपने जीवन को ऊध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना भी करते है। मुक्ति का मूल अर्थ ही बंधनमुक्त होना है,व मोह का समाप्त होना ही बंधनमुक्त अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अंतिम मंजिल बताई गई है।

कुम्भी वेद्या मा व्यधिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषित्का। (ऋग्वेद)

अर्थात्, हे कुम्भ-पर्व तुम यज्ञीय वेदी में यज्ञीय आयुधों से घृत द्वारा तृप्त होने के कारण कष्टानुभव मत करो।
युवं नदा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम्।
करोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भां असिंचतसुरायाः।। (ऋग्वेद)

कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योग्यांगमर्भो अन्तः।
प्लाशिव्र्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधं पितृभ्यः।। (शुक्ल यजुर्वेद)

कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।


आविशन्कलशूं सुतो विश्वा अर्षन्नाभिश्रिचः इन्दूरिन्द्रायधीयतो। (सामवेद)
पूर्ण कुम्भोडधि काल आहितस्तं वै पश्चामो बहुधानु सन्तः।
स इमा विश्वा भुवनानिप्रत्यकालं तमाहूः परमे व्योमन। (अथर्ववेद)

हे सन्तगण ! पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है।

कुंभ जैसे महापर्वों में ऋषिमुनि,तपस्वी,योगी अपनी साधना छोड़कर जगत और जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं। वे अपने अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त परिणामों से जिज्ञासुओं को सहज ही लाभान्वित करते हैं।कहने का भाव ये है कि कुंभ-सिंहस्थ महाकुंभ जैसे आयोजन चाहे स्वर स्फूर्त ही हों, लेकिन वह उच्च आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है और उसका सुविचारित ध्येय भी है। ऋग्वेद में कहा गया है -


जधानवृतं स्वधितिर्वनेव स्वरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।
विभेद गिरी नव वभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।।

कुंभ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जैसे गंगा अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुंभ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।

चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि। (अथर्ववेद)

ब्रह्माजी कहते हैं-हे मनुष्यों ! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं।

माधवे धवले पक्षे सिंह जीवत्वेजे खौ।
तुलाराशि निशानाथे स्वातिभे पूर्णिमा तिथौ।
व्यतीपाते तु सम्प्राप्ते चन्द्रवासर-संचुते।
कुशस्थली-महाक्षेत्रे स्नाने मोक्षमवाच्युयात्।

कहने का भाव ये है कि जब वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तो उज्जैन में शिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
विष्णु पुराण में कुंभ के महात्म्य के संबंध में लिखा गया है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञों का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल मिलता है, वही फल कुंभ के केवल एक स्नान का होता है।
अंतत: इस प्रकार हमारे वेदों,पुराणों,शास्त्रों में कुंभ का महात्म्य बताया गया है।निश्चित तौर पर 21वीं सदी के यूवा भारत में आज भी सत्संग और सतकर्म की महत्ता ही हमें विश्वगुरु बनाती है।जिसका श्रेय हमारे धर्म ग्रंथ और हमारी सनातन परंपराएं ही हैं।वसुधैव कुंटुम्बकम वाले देश भारत में भाव राग और ताल का समिश्रण ही है जहां कि सभ्यता संस्कृति की मिसालें दी हैं।धन्य है भारत भूमि और हमारी सनातन परंपराएं...।

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